AIN NEWS 1 दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर, सरकार ने हाल ही में मिड-लेवल पर 45 विशेषज्ञों की लेटरल एंट्री से नियुक्तियों के फैसले पर यू-टर्न ले लिया है। यूपीएससी द्वारा जारी किए गए विज्ञापन को कार्मिक मंत्रालय ने वापस ले लिया है। इस निर्णय पर राजनीतिक विवाद उठ गया है, जिसमें विपक्ष के साथ-साथ एनडीए के कुछ सहयोगी भी शामिल हैं।
लेटरल एंट्री की प्रक्रिया का इतिहास काफी पुराना है। पंडित नेहरू के समय से ही सरकारी नौकरियों में विशेषज्ञों की सीधी नियुक्तियां की जाती रही हैं। 1950 के दशक में इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पूल के तहत कई प्रमुख विशेषज्ञों को सरकार में शामिल किया गया। आईजी पटेल, मनमोहन सिंह, वी कृष्णमूर्ति, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और आरवी शाही जैसे नामी व्यक्तित्वों को इस प्रक्रिया के माध्यम से सरकारी सेवाओं में लाया गया।
1959 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पूल की शुरुआत की थी। इसके तहत मंतोष सोधी और वी कृष्णमूर्ति जैसे लोग सरकार में शामिल हुए। इसके बाद, 1971 में, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए और विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया।
लेटरल एंट्री की प्रक्रिया के तहत, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान भी कई प्रमुख विशेषज्ञों की नियुक्ति की गई। राजीव गांधी ने केरल इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के अध्यक्ष केपीपी नांबियार को इलेक्ट्रॉनिक्स सचिव नियुक्त किया। वाजपेयी सरकार ने 2002 में आरवी शाही को बिजली सचिव के रूप में नियुक्त किया।
मोदी सरकार ने 2018 के बाद से लेटरल एंट्री के लिए एक नई रणनीति अपनाई, जिसमें मिड-लेवल पर विशेषज्ञों की भर्ती की योजना बनाई गई थी। हालांकि, इस प्रक्रिया के विरोध में कई लोगों ने अपनी आवाज उठाई। विपक्ष और एनडीए के कुछ सहयोगी इस पर सवाल उठा रहे थे। इसका मुख्य कारण था कि सरकारी नौकरियों में विशेषज्ञता की कमी और सेवा में बदलाव के विरोध ने लेटरल एंट्री पर विवाद को जन्म दिया।
पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर ने इस पर टिप्पणी की कि यूपीएससी भर्ती के माध्यम से उपलब्ध विशेषज्ञता की गुणवत्ता को लेकर शिकायतें हैं। उनका कहना है कि सरकार को एक परिणामोन्मुखी प्रशासनिक प्रणाली बनाने पर ध्यान देना चाहिए। इस प्रक्रिया में बदलाव का विरोध हमेशा होता है, जिससे रातोंरात सुधार की संभावना कम होती है।
अमिताभ कांत, जो पूर्व में सरकारी थिंक टैंक के सीईओ रहे हैं, ने लेटरल एंट्री के लिए तीन साल के बजाय पांच साल के कार्यकाल की सिफारिश की। उनका कहना है कि लेटरल एंट्री को दोतरफा होना चाहिए, जिसमें सरकारी अधिकारियों को निजी क्षेत्र और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों में काम करने का मौका मिले।
कुल मिलाकर, लेटरल एंट्री की प्रक्रिया पर विवाद और राजनीतिक दबाव के चलते मोदी सरकार ने अपने फैसले पर यू-टर्न लिया है। इस मुद्दे ने सरकारी नियुक्तियों और प्रशासनिक सुधारों के क्षेत्र में एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया है।