अजमेर दरगाह पर सरकारी चादर भेजने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला, PIL में उठी संवैधानिक तटस्थता की बहस!

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AIN NEWS 1: राजस्थान के अजमेर स्थित सूफी संत हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की प्रसिद्ध दरगाह से जुड़ा एक पुराना धार्मिक और राजनीतिक परंपरा का मुद्दा अब देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच गया है। हर साल उर्स के मौके पर प्रधानमंत्री और अन्य संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की ओर से दरगाह पर चादर भेजे जाने की परंपरा को लेकर अब कानूनी सवाल खड़े किए गए हैं।

अजमेर की जिला अदालत के बाद अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका (PIL) दाखिल की गई है। याचिका में मांग की गई है कि दरगाह पर सालाना उर्स के दौरान सरकारी स्तर पर भेजी जाने वाली चादर की परंपरा पर तत्काल रोक लगाई जाए।

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🔹 किसने दाखिल की याचिका?

यह जनहित याचिका विश्व वैदिक सनातन संघ के प्रमुख जितेंद्र सिंह बिसेन और हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से दाखिल की गई है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह मामला सिर्फ किसी एक धर्म या परंपरा का नहीं, बल्कि भारत के संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता (Secularism) के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है।

उनका तर्क है कि जब देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या अन्य संवैधानिक पदों पर बैठे लोग किसी विशेष धार्मिक स्थल से जुड़े आयोजन में सरकारी तौर पर भागीदारी करते हैं या प्रतीकात्मक रूप से चादर भेजते हैं, तो यह राज्य और धर्म के बीच की संवैधानिक दूरी को धुंधला करता है।

🔹 क्या है विवाद की जड़?

अजमेर दरगाह पर हर साल उर्स के दौरान देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। लंबे समय से यह परंपरा रही है कि भारत के प्रधानमंत्री की ओर से एक विशेष चादर दरगाह भेजी जाती है, जिसे उर्स के दौरान चढ़ाया जाता है। यह चादर सरकारी प्रतिनिधि द्वारा अजमेर ले जाकर पेश की जाती है।

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कार्य व्यक्तिगत आस्था के दायरे में ठीक हो सकता है, लेकिन जब इसे सरकारी परंपरा का रूप दे दिया जाता है और इसके लिए सरकारी तंत्र, संसाधन और प्रतिनिधि इस्तेमाल होते हैं, तब यह संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक की भावना के खिलाफ जाता है।

🔹 संविधान और धर्मनिरपेक्षता का सवाल

याचिका में साफ तौर पर कहा गया है कि भारत का संविधान राज्य को किसी भी धर्म से अलग रखता है। संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता देता है, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि राज्य स्वयं किसी धर्म का प्रचार या समर्थन नहीं करेगा।

याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि अगर एक धर्म विशेष के आयोजन में सरकारी स्तर पर सहभागिता की अनुमति दी जाती है, तो फिर अन्य धर्मों के आयोजनों में भी यही मांग उठ सकती है। इससे न केवल प्रशासनिक असंतुलन पैदा होगा, बल्कि समाज में धार्मिक आधार पर विभाजन की स्थिति भी बन सकती है।

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🔹 जिला अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक का सफर

इस मुद्दे को लेकर पहले अजमेर की जिला अदालत में याचिका दाखिल की गई थी, जहां से मामला आगे बढ़ते हुए अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह सिर्फ एक स्थानीय या क्षेत्रीय विषय नहीं है, बल्कि पूरे देश की संवैधानिक व्यवस्था से जुड़ा गंभीर सवाल है, इसलिए इस पर अंतिम फैसला शीर्ष अदालत को करना चाहिए।

🔹 सरकार की भूमिका पर उठे सवाल

याचिका में यह भी कहा गया है कि अगर कोई प्रधानमंत्री या संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति व्यक्तिगत हैसियत से किसी धार्मिक स्थल पर जाना चाहता है या आस्था व्यक्त करना चाहता है, तो उसे रोका नहीं जा सकता। लेकिन जब यह कार्य सरकारी परंपरा, सरकारी खर्च और आधिकारिक प्रतिनिधित्व के साथ किया जाता है, तो यह समस्या बन जाता है।

याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से यह भी मांग की है कि भविष्य में किसी भी सरकार को इस तरह की धार्मिक परंपराओं को आधिकारिक स्वरूप देने से रोका जाए।

🔹 देशभर में छिड़ सकती है नई बहस

इस याचिका के सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के बाद एक बार फिर देश में धर्म और राजनीति के रिश्ते पर बहस तेज होने की संभावना है। यह मामला न केवल अजमेर दरगाह या उर्स तक सीमित है, बल्कि यह सवाल उठाता है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में राज्य और धर्म के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।

अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं कि वह इस जनहित याचिका पर क्या रुख अपनाता है और क्या यह परंपरा भविष्य में जारी रहेगी या उस पर कानूनी रोक लगाई जाएगी।

The controversy over government chadar offering at Ajmer Dargah during Urs has reached the Supreme Court of India through a Public Interest Litigation. The petition challenges the long-standing practice of Prime Minister and constitutional authorities sending chadar to the Khwaja Moinuddin Chishti Dargah, citing violation of secularism and constitutional neutrality. The case raises important questions about the separation of religion and state, making it a significant legal and political issue in Rajasthan and across India.

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