AIN NEWS 1 | जब हम बाज़ार से ताज़ी सब्ज़ियां और फल खरीदते हैं, तो हमें लगता है कि हम अपने परिवार की सेहत के लिए सही चुनाव कर रहे हैं। पर सच यह है कि इन रंग-बिरंगे और चमकदार दिखने वाले खाद्य पदार्थों में छिपा ज़हर हमारी सेहत को धीरे-धीरे खोखला कर रहा है। ताज़ा रिपोर्ट्स और लैब टेस्ट्स ने साफ कर दिया है कि पेस्टीसाइड्स यानी कीटनाशक अब हमारी थाली में सीधा जहर बनकर पहुँच रहे हैं।
खेती में फसलों को कीटों से बचाने के लिए पेस्टीसाइड्स का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन जब यही रसायन हमारे भोजन का हिस्सा बनते हैं, तो वे अस्थमा, डायबिटीज़ और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों की वजह बन जाते हैं।
पेस्टीसाइड्स: किसानों की मजबूरी या आसान आदत?
राजस्थान के अजमेर के किसान महेश मीणा बताते हैं –
“आज के समय में बिना पेस्टीसाइड्स के फसल बचाना मुश्किल है। अगर हम छिड़काव न करें तो महीनों की मेहनत पर पानी फिर सकता है।”
लेकिन कृषि वैज्ञानिक डॉ. वीरेन्द्र सिंह मानते हैं कि यह पूरी सच्चाई नहीं है। उनके अनुसार –
“किसान ज़रूरत से ज़्यादा पेस्टीसाइड्स पर निर्भर हो चुके हैं। प्राकृतिक तरीकों और जैविक नियंत्रण के जरिये भी फसल सुरक्षित रखी जा सकती है, लेकिन जागरूकता और प्रशिक्षण की कमी के चलते किसान रसायनों को ही सबसे आसान विकल्प मान लेते हैं।”
सेहत पर असर: बीमारी का अदृश्य जाल
पेस्टीसाइड्स का असर तुरंत सामने नहीं आता। ये हमारे शरीर में धीरे-धीरे जमा होते हैं और सालों बाद गंभीर बीमारियों का रूप ले लेते हैं।
1. अस्थमा और सांस की तकलीफ़
पेस्टीसाइड्स हवा और भोजन दोनों रास्तों से शरीर में जाते हैं। लंबे समय तक इनके संपर्क में रहने वाले लोगों को सांस लेने में समस्या, एलर्जी और अस्थमा जैसी बीमारियां होने लगती हैं।
2. डायबिटीज़ का बढ़ता ख़तरा
डॉक्टर्स का कहना है कि पेस्टीसाइड्स इंसुलिन के असर को कम कर देते हैं। नतीजा यह होता है कि शरीर में शुगर लेवल कंट्रोल नहीं होता और धीरे-धीरे डायबिटीज़ जैसी बीमारी घर कर लेती है।
3. कैंसर: सबसे बड़ा खतरा
अंतरराष्ट्रीय शोध बताते हैं कि लगातार पेस्टीसाइड्स से युक्त फल-सब्ज़ियां खाने से कैंसर कोशिकाएं बनने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।
4. दिमागी बीमारियां
वैज्ञानिक मानते हैं कि ये रसायन हमारे नर्वस सिस्टम पर असर डालते हैं। इससे पार्किंसंस और अल्जाइमर जैसी दिमागी बीमारियां हो सकती हैं।
5. बच्चों और युवाओं पर असर
पेस्टीसाइड्स बच्चों के शरीर पर सबसे ज़्यादा असर डालते हैं। उनमें मोटापा, कमजोरी और डायबिटीज़ के केस तेजी से बढ़ रहे हैं। वहीं युवाओं में प्रजनन क्षमता पर भी इसका नकारात्मक असर देखा गया है।
उपभोक्ताओं की चिंता
जयपुर की गृहिणी संगीता शर्मा कहती हैं –
“हम ताज़ी सब्जियां खरीदकर घर लाते हैं ताकि परिवार की सेहत अच्छी रहे, लेकिन अब हर बार यही डर सताता है कि कहीं ये सब्जियां ज़हरीली तो नहीं। बच्चों की सेहत सबसे बड़ी चिंता बन गई है।”
दिल्ली के कॉलेज छात्र रोहित बताते हैं –
“कैंटीन का खाना खाकर अक्सर बीमार हो जाता हूं। शायद इसकी वजह यही पेस्टीसाइड्स वाली सब्जियां हैं जो रोज़ाना हमारी थाली में आ रही हैं।”
सरकार और कानून की भूमिका
भारत सरकार ने कई पेस्टीसाइड्स पर प्रतिबंध लगाया है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर यह रसायन आज भी खुलेआम इस्तेमाल हो रहे हैं।
कृषि मंत्रालय का कहना है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए ‘परम्परागत कृषि विकास योजना’ और ‘राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम’ जैसे प्रयास चल रहे हैं। लेकिन जब तक उपभोक्ता और किसान मिलकर बदलाव की मांग नहीं करेंगे, तब तक पेस्टीसाइड्स का इस्तेमाल कम नहीं होगा।
क्या हैं विकल्प?
समस्या का हल मुश्किल ज़रूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं।
जैविक खेती (ऑर्गेनिक फार्मिंग) – गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, नीम तेल और गोमूत्र जैसे प्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल।
घरेलू सफाई उपाय – सब्ज़ियों और फलों को 30 मिनट तक नमक और हल्दी मिले पानी में भिगोकर धोना।
ऑर्गेनिक उत्पादों की मांग – उपभोक्ता अगर ज़्यादा ऑर्गेनिक खरीदेंगे तो किसान भी उनकी खेती करेंगे।
सरकारी सहायता और प्रशिक्षण – किसानों को प्राकृतिक खेती के लिए ट्रेनिंग और वित्तीय मदद देना ज़रूरी है।
विशेषज्ञों की राय
डॉ. मीनाक्षी अग्रवाल (कैंसर विशेषज्ञ) कहती हैं –
“हर हफ्ते कई ऐसे मरीज आते हैं जिन्हें कैंसर की शुरुआती अवस्था में ही यह मानना पड़ता है कि उनकी बीमारी का कारण पेस्टीसाइड्स युक्त भोजन है।”
डॉ. संजय गुप्ता (एंडोक्राइनोलॉजिस्ट) का कहना है –
“डायबिटीज़ के केस तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण हमारे खाने-पीने में मौजूद रसायन हैं। यदि हम समय रहते नहीं चेते तो अगली पीढ़ी और भी बड़े खतरे का सामना करेगी।”
भविष्य की राह
अगर हम अभी से सतर्क हो जाएं और ऑर्गेनिक खेती व भोजन को अपनाएं, तो न सिर्फ हमारी सेहत सुधरेगी बल्कि किसानों को भी बेहतर बाजार मिलेगा। बदलाव के लिए सिर्फ सरकार पर निर्भर रहना काफी नहीं है। उपभोक्ता, किसान और प्रशासन – तीनों को मिलकर इस ज़हरीली समस्या का हल निकालना होगा।



















