AIN NEWS 1: बता दें दिल्ली की हवाओं में काफ़ी ज्यादा जहर घुलता जा रहा है जो हर साल जानलेवा साबित होता है. हजारों लोगों को तो इसकी वजह से ही जान गंवानी पडती है. वैसे तो हमारी सरकारें तमाम तरह के दावे करती हैं, उपाय भी करती हैं पर इसका कुछ असर नजर नहीं आता. आखिरकार यह प्रदूषण लोगों को अपने घरों में कैद में रहने पर काफ़ी हद तक मजबूर कर देता है. कई बार तो यहां प्रदूषण का स्तर मानक से दस गुना तक ज्यादा हो जाता है. ऐसे में दिल्ली जैसे शहरों के लिए एक नई तकनीक वरदान साबित हो सकती है.बेल्जियम की कंपनी मास्टरब्लॉक ने कुछ ऐसे बिल्डिंग ब्लॉक्स बनाए हैं जो कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) को अपने अन्दर सोखते हैं. यह कंपनी स्टील उत्पादन के दौरान बचे धातुओं का ही इसमें इस्तेमाल करती है और उसके बचे हुए स्लैग से ये काफ़ी टिकाऊ ईंटें बनाती है. इनमें सीमेंट के बजाय बाइंडर के तौर पर CO2 का इस्तेमाल होता है. कंपनी के मुताबिक, यह कचरा जैसे ही कार्बन डाई ऑक्साइड के संपर्क में आता है तो काफ़ी ज्यादा सख्त हो जाता है. यानी ये ईंटें काफ़ी हद तक कार्बन डाई ऑक्साइड जमा कर लेती हैं.अन्य कचरे पर भी कंपनी कर रही काम आप कहेंगे कि यह सिर्फ स्टील के कचरे से बनाया जा रहा है जो काफी ज्यादा महंगा होगा. साथ ही, इतना मटीरियल भी कहां से आएगा. पर ऑर्बिक्स के सीईओ सर्ज सेलिस ने बताया कि यह एक चमत्कार से कम नहीं. बता दें हर साल लाखों टन स्टील का कचरा बनता है और उसमें से ज्यादा हिस्सा तो बर्बाद हो जाता है. हम इसका इस्तेमाल कर एक समस्या से निजात दिला रहे हैं. इसके अलावा कंपनी अन्य कई कचरे पर भी अभी काम कर रही है जो निर्माण सामग्री में इस्तेमाल हो पाए और पर्यावरण को भी काफ़ी हद तक मदद कर सके.हर साल 15 हजार टन बना रही ईंटें डायचे वैले की रिपोर्ट के मुताबिक,मास्टरब्लॉक हर रोज कंक्रीट के 70 टन ब्लॉक बना रही है यानी एक साल में करीब 15 हजार टन. कार्बन डाई ऑक्साइड की मदद से भट्ठियों और कंक्रीट के मलबे से बचे चूरे को भी निर्माण सामग्री में बदला जा सकता है. आपको बता दें कि निर्माण उद्योग दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में 40 फीसदी के लिए जिम्मेदार है. इसलिए निर्माण के कचरे को फिर से इस्तेमाल करना उत्सर्जन घटाने में काफ़ी अहम भूमिका निभा सकता है. कंपनी आने वाले वर्षों में ईंटों का उत्पादन बढ़ाकर कई गुना करना चाहती है. उधर सरकार ने भी इसमें काफी ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है और इसकी पूरी रिपोर्ट तलब की है ताकि इस पर आगे बढ़ा जा सके.तकनीक में बदलाव के बाद खर्च घटादरअसल, 2004 में एक रिसर्च हुआ था जिसमें पता चला था कि CO2 के संपर्क में आने के बाद स्टील स्लैग सख्त हो जाता है. पर उस समय इसकी कास्ट इतनी ज्यादा थी कि काम नहीं हो पाया. इसके बाद फ्लेमिश इंस्टीट्यूट फॉर टेक्नोलॉजिकल रिसर्च (वीआईटीओ) के शोधकर्ताओं ने तकनीक में बदलाव किया और 2011 में एक नई तकनीक ले आए जिसमें खर्च सिर्फ 20 फीसदी रह गया. अब कंपनी ने इसका पेटेंट अपने नाम करा लिया है.