AIN NEWS 1: आपको जानकर आश्चर्य होगा कि राम कृष्ण और अर्जुन से ही अपनी उत्पति मानते है यह मेव समुदाय ही है जो अपनी उत्पत्ति राम, कृष्ण और अर्जुन जैसी हिंदू हस्तियों से मानते आ रहे हैं। ये दिवाली, दशहरा और होली जैसे कई सारे हिन्दू त्योहार भी मनाते आ रहे हैं। इस संप्रदाय के लोगों की कुल आबादी करीब लाखों मे है और उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के तीन राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों में ये बसे हैं। उत्तर प्रदेश में ये लोग छाता तहसील में ही पाए जाते हैं, जबकि हरियाणा में नूंह (मेवात), गुड़गांव, फरीदाबाद और पलवल और राजस्थान के अलवर में भी ये लोग बसे हैं। जिस भी क्षेत्र में मेवों का वर्चस्व है, वहां पर तो वे अपनी एक अनूठी संस्कृति को संरक्षित रखने में अभी तक सक्षम हैं।

जाने क्या है ये पंडुन का कड़ा

यह पूरा समुदाय ही लोक महाकाव्यों और गाथा-गीतों के वर्णन के लिए पूरे ही मेवात क्षेत्र में काफ़ी ज्यादा प्रसिद्ध हैं। उनकी मौखिक परंपरा समुदाय के इतिहास के अध्ययन और समझ के लिए एक बहुत ही समृद्ध स्रोत है। इन मेवों द्वारा अब तक गाए गए महाकाव्यों और गाथा – गीतों में सबसे लोकप्रिय है ‘पंडुन का कड़ा है, जो महाभारत का ही एक मेवाती संस्करण है और विद्या से ही प्राप्त हुए हैं। इसके जरिए से ही मेव मुसलमान महाभारत की ओजस्वी कहानियां संगीतमय तरीके से अपने अंदाज़ में सुनाते हैं।

जाने पंग प्रमुख वाद्य यंत्र को भी 

पंडुन का कड़ा पूरे मेवात क्षेत्र के ही मेव समुदाय की एक बहुत ही विशिष्ट और महत्वपूर्ण कला है। यह इस पूरे समुदाय के लिए ही एक प्रकार की सांस्कृतिक पहचान है। 16वीं शताब्दी में सद्दलाह मेव द्वारा लिखी गई थी इस कथा (जिस पर यह पूरी परंपरा आधारित है) में पहले 2500 दोहे थे और इनकी संगीतमय प्रस्तुति में लगभग 48 घंटे तक लगते थे। इस कथा की व्याख्या में भपंग प्रमुख वाद्य यंत्र है, परंतु मंडलियाँ प्रदर्शन में हारमोनियम, ढोलक और खंजरी का भी प्रयोग करती हैं।

हालाँकि, अब मेव कलाकार जोगिया सारंगी का उपयोग तो नहीं करते हैं, जो इनके शुरूआती प्रदर्शनों का एक अभिन्न अंग हुआ करता था। पारंपरिक रूप से ही जोगी मुसलमानों द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाल इस विधा के अस्तितव पर अब बहुत बड़ा दांव लग चुका है। तकनीक के बढ़ते हुए इस्तेमाल से इसके संरक्षण में काफ़ी कमी आ चुकी है। कई मेव तो इन्हीं महाकाव्यों के माध्यम से ही अपनी उत्पत्ति का पता बताते हैं, जो उन्हें अर्जुन के वंशज के रूप में ही वर्णित भी करता है। लेकीन हरियाणा के नूंह जिले में भड़की हुई हिंसा के बाद अब सोशल मीडिया समेत अन्य कई जगहों पर मेव मुस्लिमों की काफ़ी चर्चा हो रही है। मेवात के आसपास मे बसे ये मुसलमान खुद को अभी भी अर्जुन का वंशज मानते हैं। देश की राजधानी दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर हरियाणा,

राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कई सारे जिलों में इस समुदाय की बसावट है। वैसे तो ये सभी मुसलमान इस्लाम को मानते हैं लेकिन वे एक ऐसी समग्र संस्कृति का पालन भी करते हैं जिसमें कई सारे हिंदू रीति-रिवाज भी समाहित हैं।

इनकी वंशावली का पता जग्गा से चला 

मेव अभी भी एक बहुत ही आकर्षक परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। यह हिंदू वंशावलीविदों के द्वारा उनकी वंशावली का पता लगाना है, जिन्हें जग्गा के नाम से भी जाना जाता है। मेव समुदाय में यह जग्गा किसी भी जीवनचक्र समारोह का एक बहुत ही अनिवार्य हिस्सा है। ऐसा माना जाता है कि बारहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच में मेव धीरे-धीरे इस्लाम में परिवर्तित हो गए। वैसे तो उनके नाम से उनकी हिंदू उत्पत्ति पूरी तरह से स्पष्ट होती है, क्योंकि अधिकांश मेव अभी भी अपना “सिंह” शीर्षक रखते हैं, जो समुदाय की समन्वयवादी प्रकृति को पूरी तरह प्रकट करता है। राम सिंह, तिल सिंह और फतेह सिंह विशिष्ट मेव नाम भी हैं। ये समुदाय खुद को अतीत का मेव राजपूत आज भी कहता रहा है।

ये समाज भी एक गोत्र में नहीं करते आज भी शादी

इन मेवों की एक अलग ही पहचान है, जो उन्हें मुख्यधारा के हिंदू और मुस्लिम समाज दोनों से ही अलग करती है। उनकी शादियाँ भी इस्लामी निकाह समारोह को कई हिंदू रीति-रिवाजों के साथ मे जोड़ती हैं। जैसे मेव मुसलमान हिन्दुओं की ही तरह से समान गोत्र में शादी नहीं करते, जैसा कि आप जानते है हिंदुओं में यह आम प्रथा है, जबकि मुसलमानों का तो अपने कजिन्स के बीच में भी शादी करना आम बात है।

जान ले बाबरी विध्वंस के बाद बदली इनकी फिजा

एक लेखिका सबा नकवी की माने तो , मेवात के ग्रामीण इलाकों में अभी भी यह मेव समुदाय और हिन्दू समुदाय के बीच संस्कृति और रीति-रिवाज में भेद करना काफ़ी ज्यादा मुश्किल है लेकिन धीरे धीरे गांव से शहर की तरफ बढ़ने पर उनमें भी बदलाव देखने को मिलता है। मेव मुसलमान अब धीरे धीरे हिन्दू संस्कृति को छोड़ने लगे हैं। यह पूरा बदलाव ही अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद से आया है। अयोध्या आंदोलन और उसके परिणामस्वरूप शांतिपूर्ण मेवात बेल्ट में भी काफ़ी ज्यादा सांप्रदायिक दंगे हुए थे। तब से सामुदायिक लामबंदी राजनीतिक लाभ के आधार पर ही होती रही है।2011-12 में भी मेवात में भी काफ़ी भयानक सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। तब वहां के मुस्लिम समुदाय ने राज्य सरकार पर ही गोलीबारी में उन्हें निशाना बनाने का गम्भीर आरोप लगाया था, जिसमें एक गांव में तो दस से अधिक लोग मारे भी गए थे। इसके अलावा भी जब से आरएसएस और भाजपा राज्य और देश में एक शक्तिशाली राजनीतिक ताकत बनकर उभरी हैं, तब से ही अधिकांश मेवों ने खुद की पहचान एक मुस्लिम के रूप में बतानी शुरू कर दी है। इसलिए, मेवात क्षेत्र में मेव मुसलमानों की पहचान का भी प्रश्न एक जटिल और बदलते परिदृश्य में ही तब्दील हो चुका है।

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