AIN NEWS 1 | भारत इस साल 15 अगस्त को आजादी के 79 साल पूरे होने का जश्न मनाने जा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी दिल्ली के लाल किले से प्रधानमंत्री तिरंगा फहराएंगे। लेकिन स्वतंत्रता दिवस केवल उत्सव का दिन नहीं, बल्कि उन ऐतिहासिक घटनाओं को याद करने का भी अवसर है, जिन्होंने हमें आज़ाद भारत की राह पर अग्रसर किया।
ऐसी ही एक प्रेरणादायक घटना है 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन और उत्तर प्रदेश का बलिया जिला, जिसने अंग्रेजी शासन के खिलाफ अद्वितीय साहस दिखाते हुए खुद को आज़ाद घोषित कर दिया था।
पृष्ठभूमि – भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज
साल 1942 में पूरी दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झुलस रही थी। जापानी सेना भारत की सीमाओं के पास पहुंच रही थी और ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरे की घंटी बज रही थी। ब्रिटिश सरकार ने भारत को युद्ध में मदद के बदले युद्ध के बाद डोमिनियन स्टेट का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा, जिसे कांग्रेस ने साफ तौर पर ठुकरा दिया।
महात्मा गांधी ने साफ घोषणा की – “हमें पूर्ण स्वराज चाहिए, आधी आज़ादी नहीं।”
7-8 अगस्त 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस अधिवेशन हुआ, जहां “भारत छोड़ो” प्रस्ताव पारित किया गया। इसी मंच से गांधी जी ने वह ऐतिहासिक नारा दिया – “करो या मरो।”
बलिया में बगावत की चिंगारी
गांधी जी के भाषण के बाद 9 अगस्त की सुबह ही ब्रिटिश सरकार ने देशभर के बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। बलिया में उस समय केवल दो घरों में रेडियो था, जिनसे यह खबर गांव-गांव तक पहुंची।
लोग गांधी जी के “करो या मरो” के नारे का सीधा अर्थ यह समझ बैठे कि अब आर-पार की लड़ाई का वक्त आ गया है।
10 अगस्त 1942 को गांव-गांव से हजारों लोग लाठी, भाला, हंसिया, झाड़ू और बेलन लेकर जिला मुख्यालय की ओर निकल पड़े।
इस आंदोलन की खास बात यह थी कि इसमें न कोई औपचारिक नेता था, न कोई ठोस योजना – फिर भी लोगों का जोश इतना था कि कलेक्ट्रेट के बाहर भीड़ उमड़ पड़ी। अंग्रेजी प्रशासन हक्का-बक्का रह गया।
अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक कदम
लगातार हो रहे विरोध से परेशान ब्रिटिश प्रशासन की पकड़ ढीली पड़ने लगी। लोगों ने सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया और प्रशासनिक कामकाज अपने हाथ में ले लिया।
19 अगस्त 1942 को बलिया के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत को जिले से बाहर खदेड़ते हुए “स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र” की घोषणा कर दी।
स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र – एक समानांतर सरकार
इस नई सरकार ने कुछ समय तक जिले का संचालन किया। स्थानीय नेताओं ने व्यवस्था संभाली, फैसले लिए, और कानून-व्यवस्था बनाए रखने की कोशिश की। यह एक समानांतर शासन था, जो सीधे जनता के भरोसे पर चल रहा था।
हालांकि, ब्रिटिश सरकार इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी। सितंबर 1942 में अंग्रेजी सेना बलिया में दोबारा दाखिल हुई, नियंत्रण वापस लिया गया और कई स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर कठोर सजा दी गई।
महिलाओं और युवाओं की अहम भूमिका
बलिया की इस आज़ादी की लड़ाई में महिलाओं और युवाओं ने अभूतपूर्व योगदान दिया। जहां देशभर में उस दौर की जानी-मानी महिला स्वतंत्रता सेनानियां आंदोलन का नेतृत्व कर रही थीं, वहीं बलिया की महिलाएं भी अपने गांवों से निकलकर मोर्चे पर डटीं।
पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर, झाड़ू, बेलन और डंडों से लैस होकर, उन्होंने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी। युवाओं का उत्साह भी चरम पर था – वे अपनी जान की परवाह किए बिना आंदोलन में कूद पड़े।
बलिया का यह इतिहास क्यों खास है
यह उत्तर प्रदेश का पहला जिला था, जिसने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान खुद को अंग्रेजों से आज़ाद घोषित किया।
यहां की आज़ादी बिना किसी बड़े नेता की मौजूदगी के, जनशक्ति के बल पर हासिल हुई।
बलिया का यह साहसिक कदम आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया।
आज के लिए सीख
बलिया की कहानी यह सिखाती है कि जब जनता एकजुट होती है, तो सबसे ताकतवर सत्ता भी टिक नहीं पाती। यह घटना भारत के स्वतंत्रता संग्राम की उस अदम्य भावना का प्रमाण है, जिसने हमें 1947 में पूर्ण आज़ादी दिलाई।