AIN NEWS 1 : ‘हिमालयन वियाग्रा’ की कीमत 20 लाख रुपये प्रति किलो तक पहुंच सकती है। आखिर ऐसा क्या खास है इस दुर्लभ जड़ी में, जो इसे दुनिया की सबसे महंगी प्राकृतिक औषधियों में से एक बनाता है? आइए जानते हैं।
क्या है ‘हिमालयन वियाग्रा’?
हिमालयन वियाग्रा’ को पारंपरिक रूप से कीड़ा जड़ी या यार्सागुम्बा कहा जाता है। वैज्ञानिक रूप से इसे कैटरपिलर फंगस या कॉर्डिसेप्स सिनेंसिस के नाम से जाना जाता है। यह एक अनोखी जड़ी-बूटी है, जो हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह आधा कीड़ा और आधा पौधा होती है।
यह जड़ी तब बनती है, जब एक खास प्रकार का कीड़ा (कैटरपिलर) एक विशेष घास खाता है। इसके बाद वह मर जाता है और उसके शरीर में यह फफूंद उगने लगती है। इसे 3,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले हिमालयी क्षेत्रों में ही पाया जा सकता है।
कहां पाई जाती है?
यह मुख्य रूप से भारत के उत्तराखंड (पिथौरागढ़, धारचूला, मुनस्यारी) और हिमाचल प्रदेश के ऊंचाई वाले इलाकों में मिलती है। इसके अलावा, यह नेपाल, तिब्बत और भूटान के हिमालयी क्षेत्रों में भी पाई जाती है।
कीमत क्यों है इतनी ज्यादा?
इसकी दुर्लभता और औषधीय गुणों के कारण ‘हिमालयन वियाग्रा’ की कीमत आसमान छू रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह लगभग 20 लाख रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकती है।
क्या हैं उपयोग?
औषधीय गुण: यह जड़ी औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे एक शक्तिशाली टॉनिक माना जाता है, जो शारीरिक क्षमता और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करता है।
कैंसर उपचार: कैंसर की कुछ दवाओं के निर्माण में इसका उपयोग किया जाता है।
यौन स्वास्थ्य: इसे यौन शक्ति बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसे ‘हिमालयन वियाग्रा’ कहा जाता है।
मांग और व्यापार
‘हिमालयन वियाग्रा’ की मांग भारत के साथ-साथ चीन, सिंगापुर और हांगकांग जैसे देशों में भी बहुत अधिक है। विदेशी व्यापारी इसे बड़ी मात्रा में खरीदते हैं। हालांकि, इसकी अत्यधिक मांग और अवैध खनन के कारण इसके संरक्षण को लेकर गंभीर चिंताएं हैं।
संरक्षण की जरूरतदुर्लभ और मूल्यवान होने के कारण कीड़ा जड़ी का अत्यधिक दोहन हो रहा है। यह हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहा है। इसके लिए स्थायी तरीके से इसका दोहन और संरक्षण जरूरी है।
निष्कर्ष
‘हिमालयन वियाग्रा’ न केवल हिमालयी क्षेत्र के लोगों के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत है, बल्कि इसके औषधीय गुण इसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमूल्य बनाते हैं। हालांकि, इसकी बढ़ती मांग को देखते हुए इसके संरक्षण के प्रयास भी उतने ही जरूरी हैं।