AIN NEWS 1 | नेपाल में हाल ही में बड़ा राजनीतिक संकट खड़ा हो गया, जिसके चलते प्रधानमंत्री केपी ओली को महज दो दिनों के भीतर पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद सेना के समर्थन से सुशीला कार्की के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन किया गया। यह अचानक हुआ सत्ता परिवर्तन केवल आंतरिक राजनीति का परिणाम नहीं माना जा रहा, बल्कि इसके पीछे अमेरिका की गुप्त भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
नेपाल में अमेरिका का हस्तक्षेप कोई नई बात नहीं है। अतीत में कई बार वॉशिंगटन की नीतियों और CIA के गुप्त अभियानों का असर नेपाल की राजनीति और सुरक्षा पर देखा गया है। यही वजह है कि मौजूदा हालात को देखकर एक बार फिर से लोगों के मन में यह शक गहरा रहा है कि अमेरिका ने पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई है।
नेपाल में अमेरिका का पुराना दखल
इतिहास बताता है कि शीत युद्ध के दौर में अमेरिका ने नेपाल को अपने रणनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया। चीन के खिलाफ खुफिया जानकारी जुटाने, प्रचार अभियान चलाने और अर्धसैनिक गतिविधियों के लिए नेपाल को बेस बनाया गया।
1971 में राष्ट्रपति निक्सन की “सीक्रेट एक्शन कमेटी” के दस्तावेजों में साफ उल्लेख मिलता है कि अमेरिका नेपाल की धरती का इस्तेमाल चीन-विरोधी ताकतों को सहयोग देने के लिए करता था। इसका मकसद नेपाल को दबाव में रखकर एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करना था।
मस्टैंग गुरिल्ला बल और CIA का कनेक्शन
1960 के दशक में अमेरिका ने नेपाल में तिब्बती शरणार्थियों को हथियार और प्रशिक्षण देकर “मस्टैंग गुरिल्ला फोर्स” खड़ी की। इस बल का उद्देश्य चीन विरोधी कार्रवाइयों को अंजाम देना था।
बाद में “Shadow Circus: The CIA in Tibet” नामक डॉक्यूमेंट्री में इन गुरिल्ला लड़ाकों ने खुद बताया कि उन्हें कैसे अमेरिकी खुफिया एजेंसी से मदद मिली। हालांकि जब अमेरिका और चीन के रिश्ते सुधरने लगे तो अमेरिका ने इस बल का समर्थन छोड़ दिया। इससे नेपाल को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में असहज स्थिति का सामना करना पड़ा।
9/11 के बाद बढ़ा अमेरिकी दबदबा
साल 2001 में जब अमेरिका पर 9/11 का हमला हुआ, तो उसने आतंकवाद के खिलाफ जंग की आड़ में नेपाल में अपनी पकड़ और मजबूत की। माओवादी विद्रोहियों को आतंकवादी घोषित कर काठमांडू को भारी सैन्य सहायता दी गई।
हजारों M-16 राइफलें नेपाल भेजी गईं और अमेरिकी दूतावास में “डिफेंस को-ऑपरेशन ऑफिस” स्थापित किया गया। 2005 तक अमेरिकी मदद से नेपाल की रॉयल आर्मी का आकार लगभग दोगुना हो गया था। इस तरह नेपाल अमेरिका की रणनीतिक चालों का अहम हिस्सा बनता चला गया।
ओली सरकार के पतन पर उठे सवाल
केपी ओली की सरकार के अचानक पतन के बाद संदेह और गहरा गया। कई वरिष्ठ पत्रकारों, पुलिस अधिकारियों और सैन्य अधिकारियों ने यह दावा किया कि इतनी बड़ी हलचल केवल आंतरिक कारणों से संभव नहीं थी।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इस आंदोलन में कोई बड़ा नेपाली राजनीतिक चेहरा सामने नहीं आया। यही वजह है कि बाहरी ताकतों की संलिप्तता की चर्चा और तेज हो गई।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि अमेरिका हमेशा से काठमांडू में चुपचाप काम करना पसंद करता रहा है। इसलिए इस बार भी यह मानना मुश्किल नहीं कि सबकुछ पर्दे के पीछे से नियंत्रित किया गया हो।
नेपाल के भीतर की आशंकाएं
नेपाल के एक अधिकारी ने बताया कि अगर नई व्यवस्था इजाजत देती है, तो सबूत जुटाकर यह साबित करने की कोशिश होगी कि इस पूरी हलचल के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ था।
इतिहास यह साबित करता है कि 1960 और 70 के दशक में अमेरिका नेपाल की राजनीति में परोक्ष रूप से शामिल रहा है। आज के हालात को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि वही पुराना पैटर्न एक बार फिर दोहराया गया है।
क्या वॉशिंगटन ने घुमाई सत्ता परिवर्तन की चाबी?
अभी तक कोई ठोस सबूत सामने नहीं आया है, लेकिन ऐतिहासिक उदाहरणों और मौजूदा घटनाओं को जोड़कर देखें तो ऐसा लगता है कि सत्ता परिवर्तन की चाबी कहीं न कहीं अमेरिका ने ही घुमाई।
नेपाल का यह संकट न सिर्फ काठमांडू बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में नए सवाल खड़ा करता है—क्या नेपाल एक बार फिर बड़े देशों की राजनीति का मोहरा बन रहा है? आने वाले समय में यह साफ होगा कि अमेरिका ने पर्दे के पीछे क्या भूमिका निभाई, लेकिन शक की सुई लगातार उसकी ओर घूम रही है।
नेपाल की राजनीति हमेशा से पड़ोसी देशों और वैश्विक ताकतों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है। चाहे शीत युद्ध का दौर हो, तिब्बत संकट या 9/11 के बाद की अमेरिकी रणनीति—हर बार नेपाल बाहरी ताकतों की गतिविधियों का शिकार हुआ। आज ओली सरकार के पतन और अंतरिम सरकार के गठन ने एक बार फिर इस सवाल को जन्म दिया है कि क्या नेपाल की किस्मत वास्तव में नेपाली जनता के हाथों में है या फिर विदेशी शक्तियों की कठपुतली बनकर रह गई है।