19 जुलाई से मुहर्रम के महीना की शुरुआत हो गई है, आखिर मुहर्रम बनाने की क्या है पूरी कहानी.

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19 जुलाई से मुहर्रम के महीना की शुरुआत हो गई है, आखिर मुहर्रम बनाने की क्या है पूरी कहानी !

इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक नए साल की शुरुआत मुहर्रम के महीने से होती है। इसलिए मुहर्रम इस्लाम धर्म का पहला महीना होता है। यानी मुहर्रम इस्लाम के नए साल या हिजरी सन् का शुरुआती महीना। बता दें मुहर्रम गम और मातम का महीना है, जिसे इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग मनाते हैं। मुहर्रम बकरीद के त्योहार के 20 दिनों के बाद मनाया जाता है। इस बार मुहर्रम का महीना 19 जुलाई 2023 यानी की आज  से इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रंम शुरु होने जा रहा है. क्रूर शासक यजीद के खिलाफ कर्बला की जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत की याद में इस दिन मातम मनाया जाता है बता दे कि मुस्लिम लोग ताजिया निकालकर इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करते है. आखिर कार मुहर्रम क्यो मनाते है, मुहर्रम की दसवीं तारीख रोज-ए-आशुरा का इतिहात क्या है
मुहर्रम की दसवीं तारीख रोज-ए-आशुरा का इतिहात क्या है
शिया मुस्लिम मुहर्रम को गम का महीना मानते हैं. आज से करीब 1400 साल पहले कर्बला में इंसाफ की जंग हुई थी. इस जंग में पैगंबर हजरत मोहम्‍मद के नवासे इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ शहीद हो गए थे. इस्लाम की रक्षा के लिए उन्होंने खुद को कुर्बान कर दिया था. यह घटना मुहर्रम के 10वें दिन यानी रोज-ए-आशुरा के दिन हुई थी इसी कारण मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते है मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही सभी शिया समुदाय क लोग पूरे 2 महीने 8 दिनों तक शोक मनाते है. इस दौरान वे लाल सुर्ख और चमक वाले कपड़े नहीं पहनते है. इन दिनों ज्यादातर काले रगं के ही कपड़े पहने जाते है. मुहर्रम के पूरे महीने शिया मुस्लिम किसी तरह की कोई खुशी नहीं मनाते है और न उनके घरोम में 2 महीने 8 दिन तक कोई शादियां होती है और शिया4 महिलाएं और लड़कियां पूरे 2 महीने 8 दिन के लिए श्रृंगार की चीजों से दूरी बना लेती है
1400 साल पहले  क्या हुआ था                         
कर्बला की जंग करीब 1400 साल पहले हुई थी. कर्बला की जंग इस्लाम की सबसे बड़ी जंग में से एक है, क्योंकि इसमें इस्लाम के आखिरी पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन धर्म की रक्षा करते हुए शहादत को प्राप्त हुए थे.इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था. मुआविया के इंतकाल के बाद उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर काबिज होने का मौका मिला. कर्बला की जंग इसी अत्याचारी शासक यजीद के खिलाफ थी.यजीद का इस्लाम को लेकर अलग रुख था. वह धर्म को अपने अनुसार चलाना चाहता था और इसी वजह से उसने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को भी अपने आदेशों का पालन करने के लिए कहा. यजीद ने कहा कि इमाम हुसैन और उनके सभी समर्थक उसे ही अपना खलीफा मानें.यजीद का मानना था कि अगर इमाम हुसैन ने उसे अपना खलीफा मान लिया तो वह आराम से इस्लाम मानने वालों पर राज कर सकता है. हालांकि, इमाम हुसैन को यह बिल्कुल भी मंजूर नहीं था. उन्होंने साफ तौर पर ऐसा करने से इनकार कर दिया. यजीद को ये इनकार नागवार गुजरा और उसने इमाम हुसैन और उनके समर्थकों पर जुल्म बढ़ा दिए.
यजीद के दिन पर दिन जुल्म बढ़ते गए
यजीद के जुल्मों को देखते हुए इमाम हुसैन ने अपने काफिले में मौजूद लोगों को वहां से चले जाने के लिए कहा. लेकिन कोई भी हुसैन को छोड़कर वहां से नहीं गया. मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया. यजीद बहुत ताकतवर था. यजीद के पास हथियार, खंजर, तलवारें थीं. जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे.
10वीं तारीख को यजीद की फौज और हुसैन के साथियों के बीच जंग छिड़ गई. यजीदी सेना काफी ताकतवर थी तो उसने इमाम हुसैन के काफिले को घेर लिया और उनका कत्ल कर दिया. इस जंग में हुसैन के 18 साल के बेटे अली अकबर, 6 महीने के बेटे अली असगर और 7 साल के भतीजे कासिम का भी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया. वहीं इमाम हुसैन के काफिले में शामिल सैनिकों के परिवार वालों को भी बंधक बना लिया गया था.
मातम मनाते हैं शिया लोग
हुसैन का कत्ल करने के बाद यजीद ने पहले बैत समर्थकों के घरों में आग लगा दी. इसके बाद काफिले में मौजूद लोगों के घरवालों को अपना कैदी बना लिया. कर्बला में इस्लाम के हित में जंग करते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को शहीद हुए थे. हुसैन की उसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से शोक जाहिर करते हैं. शिया लोग अपना ग़म जाहिर करने के लिए मातम करते हैं, मजलिस पढ़ते हैं.

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